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सूर्योपासना????का लोकपर्व 17 को नहाए-खाए से शुरू होगा छठ महापर्व,???????? पढ़िये आखिर क्यों मनाते हैं छठ ?

सूर्योपासना ????का लोकपर्व 17 को नहाए-खाए से शुरू होगा छठ महापर्व,???????? पढ़िये आखिर क्यों मनाते हैं छठ ?

भगवान सूर्य की उपासना का महापर्व छठ पूजा शुक्रवार को शुभ संयोग के साथ नहाय-खाय से शुरू होगा। 18 नवंबर को खरना, 19 नवंबर को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य और 20 को उगते सूर्य को अर्घ्य के साथ चार दिनों के पर्व का समापन होगा।
दिवाली व गोवर्धन पूजा के बाद चार दिवसीय छठ पूजा की तैयारियां शुरू हो गई हैं। दुकानों पर खरीदारों की भीड़ जुटने से बाजारों में रौनक दिखने लगी है। शहर से लेकर गांवों तक घाटों व पोखरों की साफ-सफाई होने लगी है। दउरी बनाने वाले युद्ध स्तर पर जुटे हैं। व्यापारी विभिन्न प्रकार के फलों को मांगा रहे हैं। 

पहला दिन: नहाय खाय, 17 नवंबर

छठ पर्व का आरंभ नहाय खाय से आरंभ होता है। यह 17 नवंबर दिन शुक्रवार को है। इस दिन चतुर्थी तिथि का मान दिन में 11 बजकर 38 मिनट पश्चात पंचमी तिथि, पूर्वाषाढ़ नक्षत्र संपूर्ण दिन भर और रात को दो बजकर 37 मिनट, पश्चात उत्तराषाढ़ है। इस दिन धृतियोग और प्रवर्धमान नामक औदायिक योग है और इसके अतिरिक्त स्थायीयोग (जय योग), रवियोग और द्विपुष्कर योग भी है। इस प्रकार इस दिन पांच शुभ योगों की स्थिति बन रही है। पंडित शरद चंद्र मिश्र के अनुसार, छठ महापर्व का आरंभ नहाय खाय से आरंभ होता है।

नहाय-खाय के अंतर्गत व्रती महिलाएं नदी, तालाब आदि में जाकर स्नान करेंगी। घर आकर खाना बनाएंगी। खाने में कद्दू व चावल बनाया जाता है। श्रद्धालु इसे कद्दू भात कहते हैं। नहाय खाय के दिन अरवा चावल, चने की दाल और कद्दू की सब्जी बनाई जाती है। व्रतियों के प्रसाद ग्रहण करने के बाद ही परिवार के अन्य लोग भोजन ग्रहण करते हैं।

दूसरा दिन: खरना 18 नवंबर

छठ पर्व का दूसरे दिन खरना है। इस दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी तिथि का मान सुबह नौ बजकर 53 मिनट मिनट, पश्चात षष्ठी तिथि है। इस दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र दिन भर और रात को एक बजकर 22 मिनट तक, इसके बाद श्रवण नक्षत्र और शूल तदुपरि वृद्धि नामक योग है। ज्योतिषाचार्य बृजेश पांडेय के अनुसार, इस दिन व्रती महिलाएं उपवास करेंगी। शाम को पूजा करने के उपरांत व्रत का पारण करेंगी। व्रत खोलने में नैवेद्य और प्रसाद का उपयोग करेंगी। दिनभर उपवास रखकर शाम तक सूर्य भगवान की पूजा करने के पश्चात खीर पूड़ी का भोग लगाकर हवन किया जाता है।

तीसरा दिन: संध्या अर्घ्य 19 नवंबर

यह छठ महापर्व का तीसरा दिन है। इस दिन पंचमी तिथि सुबह आठ बजकर 15 मिनट तक, पश्चात षष्ठी तिथि है। इस दिन मूल नक्षत्र दिन में 10 बजकर 34 मिनट तक पश्चिम पूर्वाषाढ़, सुकर्मा और सिद्धि नामक औदायिक योग है। ज्योतिर्विद पंडित नरेंद्र उपाध्याय ने बताया कि इस दिन व्रती दिनभर व्रत रखकर अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगी। शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को तालाब या नदी में अर्घ्य देंगी। अर्घ्य दूध और जल से दिया जाता है। अर्घ्य देने के बाद सूपों में रखा सामान भगवान सूर्य और माता षष्ठी देवी को अर्पित किया जाता है।

चौथा दिन : उगते हुए सूर्य को अर्घ्य 20 नवंबर

यह दिन छठ महापर्व का अंतिम दिन है। इस दिन धनिष्ठा नक्षत्र और ध्रुव योग और शुभ नामक नामक औदायिक योग है। इस प्रकार सूर्य षष्ठी का महापर्व प्रवर्धमान योग से प्रारंभ होकर शुभ योग में समाप्त हो रहा है। ऐसा योग बहुत मुश्किल से प्राप्त होता है। डॉ. जोखन पांडेय शास्त्री के अनुसार, सूर्य को परम ब्रह्म और माया षष्ठी को परा प्रकृति की संज्ञा दी जाती है। इस महापर्व पर समस्त देवगणों की अनुकंपा व्रतियों को प्राप्त होगी। इस दिन व्रती ब्रह्म मुहूर्त में नई अर्घ्य सामग्री लेकर जलाशय में खड़ी होकर अरुणोदय की प्रतीक्षा करेंगी। जैसे ही क्षितिज पर अरुणिमा दिखाई देगी वह मंत्रोच्चार के साथ भगवान सूर्य को अर्घ्य देंगी। इसके बाद वह व्रत का पारण करेंगी।

अर्घ्य मुहूर्त
19 नवंबर: सायंकाल पांच बजकर 22 मिनट पर अस्तगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा।
20 नवंबर: सुबह छह बजकर 39 मिनट पर सूर्य को अर्घ्य प्रदान किया जाएगा।

आखिर क्यों मनाते हैं छठ?

सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के छठ पूजा भगवान भास्कर की उपासना का पर्व है। सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में सूर्यनारायण यानी भगवान भास्कर प्रत्यक्ष देवता हैं। धीरे-धीरे यह त्योहार प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित हो गया है। यण यानी भगवान भास्कर प्रत्यक्ष देवता हैं। वाल्मीकि रामायण में आदित्य हृदय स्तोत्र के द्वारा सूर्यदेव का जो स्तवन किया गया है, उससे उनके सर्वदेवमय- सर्वशक्तिमय स्वरूप का बोध होता है। कहते हैं इससे समस्त रोग-शोक, संकट और शत्रु नष्ट होते हैं और संतान का कल्याण होता है। भैया दूज के दूसरे दिन शुरू होने वाले इस चार दिवसीय पर्व के बारे में मान्यता है कि पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है।

कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सूर्य षष्ठी का व्रत करने का विधान है। अथर्ववेद में भी इस पर्व का उल्लेख है। यह ऐसा पूजा विधान है जिसे वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाभकारी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से की गई इस पूजा से मानव की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इसे करने वाली स्त्रियाँ धन-धान्य, पति-पुत्र तथा सुख-समृद्धि से परिपूर्ण रहती हैं। छठ पर्व सूर्योपासना का अमोघ अनुष्ठान है। कहते हैं इससे समस्त रोग-शोक, संकट और शत्रु नष्ट होते हैं और संतान का कल्याण होता है। भक्ति-भाव से किए गए इस व्रत द्वारा निःसंतान को संतान सुख प्राप्त होता है।

यह व्रत बडे नियम तथा निष्ठा से किया जाता है। इसमे तीन दिन के कठोर उपवास का विधान है । इस व्रत को करने वाली स्त्रियों को पंचमी को एक बार नमक रहित भोजन करना पडता है। षष्ठी को निर्जल रहकर व्रत करना पडता है । षष्ठी को अस्त होते हुए सूर्य को विधिपूर्वक पूजा करके अर्घ्य देते हैं। सप्तमी के दिन प्रातरूकाल नदी या तालाब पर जाकर स्नान करती हैं। सूर्याेदय होते ही अर्घ्य देकर जल ग्रहण करके व्रत को खोलती है।

सूर्यषष्ठी-व्रत के अवसर पर सायंकालीन प्रथम अर्घ्य से पूर्व मिट्टी की प्रतिमा बनाकर षष्ठीदेवी का आवाहन एवं पूजन करते हैं। पुनः प्रातः अर्घ्य के पूर्व षष्ठीदेवी का पूजन कर विसर्जन कर देते हैं। मान्यता है कि पंचमी के सायंकाल से ही घर में भगवती षष्ठी का आगमन हो जाता है। इस प्रकार भगवान्‌ सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है। इसीलिये लोक में यह पर्व ‘सूर्यषष्ठी’ के नाम से विख्यात है।

छठ का पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी (पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धोकर ही जाते हैं यही नही तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं।

पर्व के पहले दिन ’नहाय-खाय’ को पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ और खजूर हैं, नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर दीपक लगे हो गन्ने के पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर अरवा चावल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं।
छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत (उपवास) रखा जाता है और शाम को बखीर बनाकर देवकरी में उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।

तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, में पूजा का सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी या पोखर पर ले जाता है।

यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। नदी किनारे जा कर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं।

कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अगली सुबह सूर्याेदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।

सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ देते हैं लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद ले कर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।

छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ-साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छरू दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है।

कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।

रात छठिया मईया गवनै अईली
आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली
बिलम्बलीदृ बिलम्बली कवन राम के अंगना
जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां
जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा
उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां

परना को व्रती व्रत खोलते हैं और आसपास के लोगों को छठी मैया का प्रसाद देते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य की पूजा या जल देना लाभदायक माना जाता है। भारत के अधिकतर राज्यों में लोग मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाते हैं, लेकिन इस पूजा का विशेष महत्व है।
छठ माता का एक लोकप्रिय गीत है
केरवा जे फरेला गवद से ओह पर सुगा मंडराय
उ जे खबरी जनइबो अदिक से सुगा देले जुठियाए
उ जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरझाय
उ जे सुगनी जे रोवे ले वियोग से आदित होइ ना सहाय

परना को व्रती व्रत खोलते हैं और आसपास के लोगों को छठी मैया का प्रसाद देते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य की पूजा या जल देना लाभदायक माना जाता है। भारत के अधिकतर राज्यों में लोग मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाते हैं, लेकिन इस पूजा का विशेष महत्व है।

छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के हर कोने में किया जाता है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है पिछले कई वर्षों से प्रशासन को इसके आयोजन के लिए विशेष प्रबंध करने पड़ते हैं। इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को धूम धाम से मनाते हैं।

छठ पर्व को किसने शुरू किया इसके पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां प्रचलित हैं।

मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर (तालाब) के किनारे यह पूजा की जाती है। प्राचीन काल में इसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता था। लेकिन आज इस प्रान्त के लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं वहाँ इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं। छठ पर्व को किसने शुरू किया इसके पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां प्रचलित हैं। लोक मातृ का षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई।

इस कथा के अलावा एक कथा राम-सीता जी से भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब राम-सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगा जल छिड़क कर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। जिसे सीता जी ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।

छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। दरअसल कुंती पांच पुत्रों की माता थी और छठी माता के रूप में उन्हें कलंकित होना पड़ा था। माता को कलंक से मुक्ति दिलाने के लिए कर्ण ने गंगा में सूर्य को अर्घ्य देना शुरू किया, जिसके बाद भगवान भास्कर कर्ण के पास आए और अंग की जनता के समक्ष उन्हें अपना पुत्र माना। इस प्रकार कुंती की पवित्रता कायम रही और वो कुंवारी मां के कलंक से मुक्त हो गई। इस प्रकार मूल रूप से कलंक या आरोप से मुक्ति की कामना के लिए छठ का व्रत रखा जाता है। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।

छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब दौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाट वापस मिल गया था।

पुराण में छठ पूजा के पीछे की कहानी राजा प्रियंवद को लेकर भी है। कहते हैं राजा प्रियवंद को कोई संतान नहीं थी तब महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वो पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं।और उन्होंने राजा से कहा कि क्योंकि वो सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने राजा को उनकी पूजा करने और दूसरों को पूजा के लिए प्रेरित करने को कहा। राजा प्रियंवद ने पुत्र इच्छा के कारण देवी षष्ठी की व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई।

मिथिला क्षेत्र में तो इस प्रकार की भी धारणाएं हैं कि छठ के दौरान पानी में खड़े होने मात्र से शरीर पर आए उजले दाग अथवा किसी प्रकार के चर्म रोग से छुटकारा मिल जाता है। छठ पर्व को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो षष्ठी तिथि (छठ) को एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है, इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें ;न्सजतं टपवसमज त्ंलेद्ध पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं इस कारण इसके सम्भावित कुप्रभावों से मानव की यथासम्भव रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। पर्व पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा सम्भव है। पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिलता है।

सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वी पर आती हैं। सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वी पर पहुँचता है, तो पहले वायुमंडल मिलता है। वायुमंडल में प्रवेश करने पर उसे आयन मंडल मिलता है। पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है। इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी की सतह पर केवल उसका नगण्य भाग ही पहुँच पाता है। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है।

अतः सामान्य अवस्था में मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उस धूप द्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य या जीवन को लाभ होता है। छठ जैसी खगोलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा के दोनों छोरों पर) सूर्य की पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतह से परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वी पर पुनः सामान्य से अधिक मात्रा में पहुँच जाती हैं। वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदय को यह और भी सघन हो जाती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छः दिन उपरान्त आती है। ज्योतिषीय गणना पर आधारित होने के कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पर्व ही रखा गया है।

खास बात यह कि पूजा में वही चीजें चढ़ेगीं जो किसानी जीवन में सर्वाधिक सुलभ है। गुड़, गन्ना, सिंघाड़ा, नारियल, केला, नींबू, हल्दी, अदरक, सुपारी, साठी का चावल, जमीरी, संतरा, मूली आदि। छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है। इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को धूम धाम से मनाते हैं।

सादर आभार

डा0 महेन्द्र प्रताप पाण्डेय ‘नन्द’
शिक्षक एवं साहित्यकार “शैलेश मटियानी” पुरुस्कार प्राप्त
राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
बिरिया मझोला, (खटीमा), ऊधम सिंह नगर
दूरभाषः- 9410161626

uttarakhandlive24
Author: uttarakhandlive24

Harrish H Mehraa

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